Thursday, November 1, 2018

(Word-Power) - शब्द-शक्ति

शब्द-शक्ति (Word-Power) की परिभाषा

शब्द का अर्थ बोध करानेवाली शक्ति 'शब्द शक्ति' कहलाती है।
शब्द-शक्ति को संक्षेप में 'शक्ति' कहते हैं। इसे 'वृत्ति' या 'व्यापार' भी कहा जाता है।

सरल शब्दों में- मिठाई या चाट का नाम सुनते ही मुँह में पानी भर आता है। साँप या भूत का नाम सुनते ही मन में भय का संचार हो जाता है। यह प्रभाव अर्थगत है। अतः जिस शक्ति के द्वारा शब्द का अर्थगत प्रभाव पड़ता है वह शब्दशक्ति है।

काव्य में रस का संचार शब्द-शक्तियों के द्वारा होता हैं। यहाँ शब्दों का विशेष महत्त्व माना गया हैं। काव्य-भाषा में वाक्यों की रचना इस बात की सूचक हैं कि उसमें अनेक प्रकार के शब्दों का प्रयोग प्रकरण, प्रसंग और कवि-आशय के अनुसार हुआ हैं। कवियों की कृतियों में शब्दों के अनेक अर्थ ढूँढने की प्रथा उचित नहीं कही जा सकती। देखना यह चाहिए कि कवि ने शब्दों का प्रयोग कर जिन अभीष्ट अर्थों को रखना चाहा हैं, उसमें वह कहाँ तक सफल हुआ हैं।

तात्पर्य यह हैं कि 'शब्द की शक्ति उसके अन्तर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार हैं।'' अर्थ का बोध कराने में 'शब्द' कारण हैं और अर्थ का बोध कराने वाले व्यापार को शब्द-शक्ति कहते हैं। आचार्य मम्मट ने व्यापार शब्द का और आचार्य विश्वनाथ ने शक्ति शब्द का प्रयोग किया हैं।

हिन्दी के रीतिकालीन आचार्य चिन्तामणि ने लिखा है कि ''जो सुन पड़े सो शब्द है, समुझि परै सो अर्थ'' अर्थात जो सुनाई पड़े वह शब्द है तथा उसे सुनकर जो समझ में आवे वह उसका अर्थ है। स्पष्ट है कि जो ध्वनि हमें सुनाई पड़ती है वह 'शब्द' है, और उस ध्वनि से हम जो संकेत या मतलब ग्रहण करते है वह उसका 'अर्थ' है।

शब्द से अर्थ का बोध होता है। अतः शब्द हुआ 'बोधक' (बोध करानेवाला) और अर्थ हुआ 'बोध्य' (जिसका बोध कराया जाये)।

जितने प्रकार के शब्द होंगे उतने ही प्रकार की शक्तियाँ होंगी। शब्द तीन प्रकार के- वाचक, लक्षक एवं व्यंजक होते हैं तथा इन्हीं के अनुरूप तीन प्रकार के अर्थ- वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ होते हैं। शब्द और अर्थ के अनुरूप ही शब्द की तीन शक्तियाँ- अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना होती हैं।
(ii) एक पद्यबद्ध उदाहरण :
प्रभुहिं चितइ पुनि चितइ महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिजु-मीन-जुग, जनु विधुमंडल डोल।। - तुलसी

यहाँ धनुष-यज्ञ के प्रसंग में सीता की मनोदशा का चित्रण किया गया है। इस पद्य की पहली पंक्ति का वाच्यार्थ/अभिधेयार्थ यह है कि सीता पहले राम की ओर देखती है और फिर धरती की ओर। इससे उनके चपल नेत्र शोभित हो रहे हैं। किन्तु व्यंजनार्थ यह है कि सीता के मन में इस समय उत्सुकता, हर्ष, लज्जा आदि के भाव क्षण-क्षण में प्रकट हो रहे हैं। राम को देखकर उत्सुकता और हर्ष का भाव उत्पन्न होता है, साथ ही दूसरों की उपस्थिति का ध्यान कर उनके मन में तुरंत लज्जा भी आ जाती है, और वे धरती की ओर देखने लगती है। पर हर्ष और उत्सुकता के वशीभूत होने से वे अपने को रोक नहीं पाती और फिर राम की और देखती है, किन्तु लज्जावश फिर धरती की ओर देखने लगती है। इस प्रकार यह चक्र कुछ समय तक चलता रहता है।
स्पष्ट है कि उक्त पद्य की पहली पंक्ति से हमें हर्ष, उत्सुकता, लज्जा आदि भावों की जो प्रतीति होती है वह न तो अभिधा शक्ति से होती है और न लक्षणा शक्ति से, बल्कि होती है व्यंजना शक्ति से।

(iii) एक और पद्यबद्ध उदाहरण :
चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।। -कबीर

यहाँ चलती चक्की को देखकर कबीरदास के दुःखी होने की बात कही गई है। उसके द्वारा यह अर्थ व्यंजित होता है कि संसार चक्की के समान है जिसके जन्म और

व्यंजना के भेद

व्यंजना के दो भेद है-
(1) शाब्दी व्यंजना 
(2) आर्थी व्यंजना।

(1) शाब्दी व्यंजना- शब्द पर आधारित व्यंजना को 'शाब्दी व्यंजना' कहते है।

(2)आर्थी व्यंजना- अर्थ पर आधारित व्यंजना को 'आर्थी व्यंजना' कहते हैं।

शब्द दो प्रकार के होते है- एकार्थक एवं अनेकार्थक। जिन शब्दों का केवल एक ही अर्थ होता है, उन्हें 'एकार्थक शब्द' कहते हैं। जैसे- पुस्तक, दवा इत्यादि।
जिन शब्दों के एक से अधिक अर्थ होते हैं, उन्हें 'अनेकार्थक शब्द' कहते है। 
जैसे- कलम [अर्थ- (1) लेखनी (2) पेड़-पौधे की टहनी (3) कलमकार की कूची (4) चित्र-शैली (जैसे- पटना कलम) आदि], पानी (अर्थ- (1) जल (2) चमक (3) प्रतिष्ठा आदि) इत्यादि। 
अनेकार्थक शब्दों पर टिकी व्यंजना को 'शाब्दी व्यंजना' तथा एकार्थक शब्दों पर टिकी व्यंजना को 'आर्थी व्यंजना' कहते हैं।
व्यंजना का महत्त्व : काव्य सौंदर्य के बोध में व्यंजना शब्द शक्ति का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यंजना शब्द-शक्ति काव्य में अर्थ की गहराई, सघनता और विस्तार लाता है। काव्यशास्त्रियों ने सर्वश्रेष्ठ काव्य की सत्ता वहीं स्वीकार की है जहाँ रस व्यंग्य (व्यंजित) हो। रीतिकालीन कवि और आचार्य प्रतापसाहि के शब्दों में-

व्यंग्य जीव है कवित में शब्द अर्थ गति अंग। 
सोई उत्तर काव्य है वरणै व्यंग्य प्रसंग।।

अभिधा और लक्षणा में अंतर

अभिधा और लक्षणा में अंतर इस प्रकार हैं-
(i) अभिधा और लक्षणादोनों शब्द-शक्तियाँ हैं। दोनों से शब्दों के अर्थ का बोध होता है, पर अभिधा से शब्द के मुख्यार्थ का बोध होता है, किन्तु लक्षणा से मुख्यार्थ का बोध नहीं होता, बल्कि मुख्यार्थ से संबंधित अन्य अर्थ (लक्ष्यार्थ) का बोध होता है।

अभिधा का उदाहरण- 'बैल खड़ा है।'- इस वाक्य में बैल शब्द सुनते ही 'पशु विशेष' का चित्र आँखों के सामने आ जाता है। लक्षणा का उदाहरण- 'सुनील बैल है।'- सुनील को बैल कहने में मुख्यार्थ की बाधा है, क्योंकि कोई आदमी बैल नहीं हो सकता। बैल में जड़ता, बुद्धिहीनता आदि धर्म होते हैं। सुनील में भी बुद्धिहीनता है, इसलिए सादृश्य संबंध से बैल का लक्ष्यार्थ किया गया- बुद्धिहीन। बुद्धिहीनता का बोध हुआ लक्षणा के द्वारा। इसलिए इस वाक्य में लक्षणा है।

(ii) अभिधा शब्द-शक्ति तत्काल अपने मुख्यार्थ का बोध करा देती है, पर लक्षणा शब्द-शक्ति अपने लक्ष्यार्थ का बोध तत्काल नहीं करा पाती है। लक्षणा के लिए तीन बातों का होना नितांत आवश्यक है- मुख्यार्थ में बाधा, मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में संबंध तथा रूढ़ि या प्रयोजन। इस त्रयी के अभाव में लक्षणा की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन अभिधा की जा सकती है।

(iii) अभिधा शब्द-शक्ति शब्द की सबसे साधारण शक्ति है। इस शब्द-शक्ति का काव्य में कोई विशेष स्थान नहीं है, क्योंकि वाच्य (अभिधेय) शब्द में कोई चमत्कार नहीं रहता। 
लक्षक (लाक्षणिक) शब्द में चमत्कार रहता है, इसलिए इसकी काव्य में अधिक उपयोगिता है।

अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना में अंतर

अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना के बीच अंतर इस प्रकार हैं-
(i) अभिधा किसी शब्द के केवल उसी अर्थ को बतलाती है जो पहले से निश्चित और व्यवहार में प्रसिद्ध हो। यह अर्थ भाषा सीखते समय हमें बताया जाता है। शब्दकोश या व्याकरण से हम इस अर्थ को जानते हैं। किन्तु लक्षणा और व्यंजना से हम शब्दों के जो अर्थ निकालते हैं वे पहले से जाने हुए नहीं होते।

लक्षणा से हम शब्दों से ऐसा अर्थ निकालते हैं, जो शब्दों से सामान्यतः नहीं लिया जाता। पर यह अर्थ सदैव मुख्यार्थ से संबंधित ही होगा।

व्यंजना के द्वारा हम शब्दों से ऐसा अर्थ भी निकालते हैं जो उनके मुख्यार्थ से संबंधित न हों। 
दूसरे शब्दों में एक बात के भीतर जो दूसरी बात छिपी रहती है उसे व्यंजना शक्ति के द्वारा निकालते हैं।

(ii) अभिधा शक्ति शब्द की सबसे सामान्य शक्ति है। इसके द्वारा व्यक्त अर्थ में चमत्कार नहीं रहता है। दूसरी ओर लक्षणा और व्यंजना के अर्थ में विलक्षणता रहती है, इसलिए काव्य में जितना महत्त्व लक्षणा और व्यंजना का है, उतना अभिधा का नहीं।

व्यंजना का काव्यशास्त्र (साहित्यशास्त्र) में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। भले ही वैयाकरण, नैयायिक, मीमांसक, वेदांती आदि अभिधा के महत्त्व से संतुष्ट हो जाये, पर काव्यशास्त्र तो रसप्रधान है, रसास्वादन के बिना, सहृदय की तृप्ति नहीं होती और उस रसाभिव्यक्ति के लिए व्यंजना शक्ति की सत्ता नितांत आवश्यक है।

(iii) अभिधा और लक्षणा का व्यापार केवल शब्दों में होता है, किन्तु व्यंजना का व्यापार शब्द और अर्थ दोनों में।

(iv) वाचक और लक्षक तो केवल शब्द होते हैं, किन्तु व्यंजक केवल शब्द ही नहीं अपितु वक्ता, श्रोता, देश, काल, चेष्टा प्रकरण आदि भी व्यंजक होते हैं।

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