Sunday, October 21, 2018

हिंदी काल विभाजन

आधुनिक काल / गद्य काल (1900 – आज तक)

हिन्दी भाषा का प्राचीन साहित्य विश्व की समस्त भाषाओं की तरह पद्य रचना से ही आरम्भ होता है । हिन्दी साहित्य में पद्य का ही प्राधान्य रहा है । पद्य रचना पर ब्रजभाषा का एकछत्र राज्य था । ब्रजभाषा गद्य का प्रचलन तो हुआ लेकिन उचित रूप से प्रचार तथा प्रसार नहीं हो पाया ।

खड़ीबोली गद्य का श्रीगणेश गंग कवि की ” चन्द-छन्द बरनन की महिमा ” नामक गद्य पुस्तक से होता है । इस का रचना काल सन् 1570 ई० है । यह गद्य-पुस्तक ब्रज-मिश्रित खड़ी बोली में लिखी गई है । श्रृंखलाबद्ध, साधु और व्यवस्थित भाषा के दर्शन सर्वप्रथम 1731 में हुआ था ।

खड़ीबोली में व्यवस्थित गद्य लिखने का सूत्रपात करने का श्रेय चार महानुभावों को है – मुन्शी सदासुखलाल, इंशाअल्ला खाँ, सदल मिश्र और लतलूलाल । इनमें मुन्शी सदासुखलाल और इंशाअल्ला खाँ ने स्वान्त-सुखाय ( अपने सुख के लिए ) तथा सदल मिश्र और लतलूलाल ने फोर्ट विलियम कालेज छत्रछाया में अंग्रेज़ अफसरों की प्रेरणा से लिखा । चारों की भाषा में अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं । सदा सुखलाल की भाषा कुछ पण्डिताऊपन लिए हुए हैं, लतलूलाल जी की भाषा में ब्रजभाषा का पुट अधिक है । वह प्रमुख रूप से पद्य का गद्यानुवाद है । इंशाअल्ला की भाषा शुद्ध हिन्दी होते हुए भी उस पर फारसी का प्रभाव है । इनकी भाषा कुदकती-फुदकती हुई है । सदल मिश्र की भाषा पर बिहारी का प्रभाव है । सदल मिश्र की भाषा का रूप सर्वत्र एक-सा नहीं दिखाई देता है ।

इन चारों महानुभावों में मुन्शी सदासुखलाल ही ऐसे गद्य- लेखक हैं, जिनमें आधुनिक खड़ीबोली के दर्शन होते हैं । अत: मुन्शी जी को खड़ी-बोली-गद्य का प्रवर्तक समझना चाहिए ।

ईसाइयों का योगदान :- हिन्दी गद्य के निर्माण में ईसाई- प्रचारकों का काफी हाथ है । उन्होंने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए हिन्दी को अपनाया । ‘बाइबल’ तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए । आगरा में इन्होंने एक ‘स्कूल बुक्स सोसाइटी’ की स्थापना की, जहाँ से बहुत- सी शिक्षोपयोगी पुस्तकें प्रकाशित हुईं । यद्यपि इन प्रचारकों का ध्येय हिन्दी गद्य का विकास करना न था, पर वह इनके द्वारा अनायास ही हो गया । लार्ड मैकाले और चार्ल्स वुद की शिक्षा-योजनाओं ने भी हिन्दी-गद्य के विकास को अनजाने में सहयोग दिया ।

ईसाइयों की भाँति महर्षि दयानन्द ने भी धर्म – प्रचार हिन्दी में ही किया । गुजराती होते हुए भी उन्होंने अपने ग्रन्थ हिन्दी में लिखे, क्योंकि हिन्दी देशव्यापी भाषा थी । स्वामी जी के हिन्दी-प्रचार का प्रभाव पंजाब पर अच्छा पड़ा । आर्यसमाजी स्कूलों में हिन्दी को प्रधानता दी जाने लगी ।

आधुनिक काल

इसी समय सनातन धर्म के नेता पण्डित श्रद्धाराम ने भी धर्म -प्रचार के लिए कुछ गद्य रचनाएँ प्रस्तुत कीं । ब्रह्मसमाज के संस्थापक राजा राममोहन राय के प्रयत्न भी हिन्दी – गद्य के विकास में सहायक हुए । उर्दू ने कचहरियों तथा स्कूलों में अपना स्थान पा लिया था फिर भी सर्वसाधारण की भाषा होने के कारण धर्म-प्रचारकों ने हिन्दी को ही अपनाया ।

उर्दू और अंग्रेज़ी के बढ़ते हुए प्रचार के समय हिन्दी के सौभाग्य से राजा शिवप्रसाद को शिक्षा विभाग में स्थान मिला । उन के प्रयत्न से ही हिन्दी का स्कूलों में प्रवेश हुआ । उन दिनों हिन्दी का अभाव था । राजा साहब ने इस अभाव की पूर्ति करने का प्रयत्न स्वयं भी किया और दूसरों से भी करवाया । राजा साहब हिन्दी लिपि में उर्दू शब्दों के अत्यधिक प्रयोग के पक्षपाती थे । प्रान्तीय शिक्षा-विभाग के उच्च पदाधिकारी होने के कारण हिन्दी-उर्दू के समझौते का मार्ग स्वीकार करना पड़ा था । राजा

साहब का लक्ष्य था कि किसी प्रकार से भी, नागरी लिपि और हिन्दी भाषा, शिक्षा – विभाग के द्वारा सर्वसाधारण जनता में अपना घर कर ले ।

भारतेन्दु हरिश्चन्द ने हिन्दी की प्राण-प्रतिष्ठा की तथा हिन्दी गद्य का स्वरूप स्थिर किया, इसलिए आप हिन्दी – गद्य के प्रवर्तक माने जाते हैं । आपने स्वयं लिखा तथा साथियों को भी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया । अपने कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया । निबन्ध, जीवन-चरित, उपन्यास, नाटक, गद्यानुवाद, समालोचना आदि सभी विषयों पर उन्होंने लेखनी उठायी ।

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी का वर्तमान हिन्दी-गद्य-निर्माण में बहुत बड़ा हाथ है । भाषा की शुद्धता पर द्विवेदी जी ने बल दिया । भारतेन्दु युग में तो भाषा का केवल एक निश्चित स्वरूप स्थिर हुआ, किन्तु द्विवेदी – युग में उसका संस्कार किया गया । उन्होंने ‘ सरस्वती ‘ पत्रिका के सम्पादन के द्वारा नवीन औए प्राचीन गद्य लेखकों के लिए शुद्ध हिन्दी लिखने का मार्ग बताया । समालोचना के द्वारा हिन्दी संसार में व्याकरण-विशुद्ध भाषा लिखने के कई बड़े-बड़े आन्दोलन उठाए । इससे हिन्दी-गद्य शैली का परिभार्जित स्वरूप निखरा और विस्तृत हुआ । संस्कृत के तत्सम शब्दों की ओर लेखकों का अधिक झुकाव हो गया और भाषा भी अधिक संस्कृत- गर्भित हो गई । परिणामस्वरूप वर्तमान काल के अनेक लेखक निर्माण का कार्य करने लगे । पं० रामचन्द्र शुक्ल तथा बाबू श्याम सुन्दरदास आदि इस युग के गम्भीर और महान समालोचक हैं । प्रेमचन्द, वृन्दावनलाल वर्मा, इलाचन्द जोशी आदि प्रसिद्ध उपन्यासकार और कहानीकार हैं । जयशंकर प्रसाद जैसे महान नाटककार भी इसी युग में हुए । इस युग में हिन्दी-गद्य में प्रौढ़ता आई । इस काल का गद्य हिन्दी-साहित्य में बेजोड़ है । आज हिन्दी-गद्य अपनी समस्त विधाओं के रूप में पुष्पित और पल्लवित हो रहा है ।

श्रृंगार / रीतिकाल – 1700 – 1900

रीतिकाल का युग हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के पश्चात् आता है । इस युग में रीति परम्परा भी विकसित हुई है । इस काल में श्रृंगार की परम्परा अश्लीलतम रूप में समाज के सामने आयी है । यह युग कला प्रधान युग ठहरा और रीति का विश्लेषण हुआ । इसीलिए इस का नाम रीतिकाल पड़ा ।

राजनितिक परिस्थिति :

इस समय शाहजहाँ राज्य करता था तथा अन्त में अंग्रेज़ शासक आये । यह काल सुख तथा वैभव का काल रहा है । शाहजहाँ के समय में सारे समाज में पूर्ण शान्ति थी और सारा समाज पूर्ण-रूप से भोग-विलास में लिप्त था । बादशाह आनन्द की रंगरलियों में मस्त था । यही कारण मुगल-साम्राज्य का ह्रास का प्रारम्भ हो गया था । चारों तरफ से विद्रोह हो रहा था । मराठे, सिक्ख, राजपूत तथा जाट मुगल साम्राज्य को चुनौती दे चुके थे । फौज में सुरा और सुन्दरी का आधिपत्य था । मुगल-साम्रज्य पूर्ण रूप से भीरू हो गया था । नवाबों और अंग्रेज़ों ने इसका खूब लाभ उठाया ।

सामाजिक परिस्थिति :

इस समय सारा समाज ही विलासिता में डूबा हुआ था । समाज ३ वर्ग में बँटे थे – उत्पाद, भोक्ता और कविगण

(१) ऊत्पादक में किसान और मज़दूर थे जिनकी अवस्था खराब थी और जो आए दिन झगड़ों में मिट

रहे थे और दुखी थे

(२) दूसरे भोक्ता वर्ग जिस में राजा, नवाब तथा इनके नौकर-चाकर थे जो भोग- वृति में अपना

जीवन व्यतीत कर रहे थे

(३) तीसरे कविगण थे जो राजाओं तथा बादशाहों के आश्रय में रह कर अपना जीवन चलाते थे

और उनको प्रसन्न करने में ही अपने को धन्य समझते थे । भोक्ता वर्ग रत्नजटित वस्त्रों को पहन

कर रँग-रलियाँ मनाते तथा नृत्य का आनन्द लेकर मदिरा का पान करके अपने राज्य, व्यक्तियों

तथा अपने आप को खो रहे थे । यही कारण है कि श्रृंगारिक काव्य ज्यादा लिखे गये ।

धार्मिक परिस्थिति :

इस काल में संत थे पर इतने प्रभावी नहीं थे । धर्म का वास्तविक विकास रूक गया था । कृष्ण-भक्ति की परम्परा चल रही थी परन्तु यह भी विलासिता प्रधान थी । संत-महन्त भी राजसी ठाठ से रहते

थे ।

साहित्यिक परिस्थिति :

साहित्य का सुन्दर स्वरूप किसी को दिखाई नहीं देता था क्योंकि बुद्धि विलासिता में डूब गयी थी । विकास की भावना रूक गयी थी । शुद्ध श्रोत दिखाई नहीं पड़ता था । राम और कृष्ण का आदर्श भी नहीं था । कवि गुलाम हो गया था । कहा भी है – ” जैसा खाये अन्न वैसा बने मन ।” कविता राज दरबारों की हो गई थी । कृष्ण और राधा का स्वरूप भी लोगों ने बिगाड दिया । रीतिकाल के प्रमुख कवि देव और बिहारी हैं । राधा-कृष्ण की आड़ में विलासी राजाओं की काम-चेष्टाओं को उद्वीप करने के लिए नग्न-वर्णन किये । सारे कवियों ने ब्रज भाषा में लिखा । इस प्रकार यह काल रीति था श्रृंगार में डूब कर अपने आप को अश्लीलता, विलासिता और आड्म्बर की ओर ले गया।

विशेषताएँ :

(१) रस, अलंकार और काव्यांगों का जितना सफल विवेचन इस काल में हुआ उतना पहले किसी काल में नहीं मिलता है ।

(२) इस काल की कविताओं में केवल भावों की अभिव्यंजना ही नहीं , अपितु कवि की पाण्डित्य – प्रवृति भी स्पष्ट झलकती है ।

(३) यद्यपि श्रॄंगार रस की रचनाओं की इस काल में प्रधानता रही, पर वीर रस की सुन्दर रचनाओं का भी अभाव नहीं रहा ।

(४) कवियों ने विशेषत: दोहा, सवैया और कवित्त, इन तीनों छन्दों में ही रचनाएँ की हैं।

(५) रचनाओं की भाषा प्राय: मिश्रित ही रही है । अवधि, और ब्रज के साथ-साथ फारसी के भी कुछ शब्दों का प्रयोग हुआ है ।

(६) भाषा में आकर्षण लाने के लिए उस को कलात्मक बनाने का प्रयत्न इन कवियों ने किया है ।

(७) श्रृंगार का विवेचन इस काल के प्राय: सभी कवियों ने किया ।

(८) रीतिकाल का सम्पूर्ण काव्य मुक्तक के रूप रचा गया है ।

चारण काल / वीरगाथा काल / आदिकाल – सन् 1050 – 1375

विशेषताएँ :

राजनीतिक दृष्टि से यह युग भारतीय इतिहास के पतन और विघटन का युग था । सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात देश में एकछत्र शासन का अभाव हो गया था । राष्ट्र छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था । लोगों की रूची युद्ध की ओर अधिक थी । राज्यों के शासक मिथ्या शान के चक्कर में फँस कर आपस में लड़ाई किया करते थे । छोटी-छोटी बातों को लेकर प्राय: युद्ध हो जाया करते थे । कभी-कभी वीरता प्रदर्शन अथवा विवाह-शादियों के अवसर पर अकारण मारकाट हो जाती थी ।

चारण और भाट अपने आश्रयदाता राजाओं का ओजस्विनी भाषा में बढ़ा-चढ़ाकर शौर्य-प्रदर्शन किया करते थे और युद्ध क लिए प्रोत्साहित भी करते थे । इसीलिए इसे चारणकाल भी कहा जाता है । राजा-महाराजा आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे तथा उसकी शक्ति क्षीण हो गयी थी । भारत में गृहयुद्ध देख कर यवनों के भी आक्रमण होने लगे । पश्चिम की ओर से मुसलमानों ने भी आक्रमण शुरु कर दिया था । पराक्रम-हीन क्षत्रियों ने भारत की प्रभु-सत्ता को विदेशियों के हाथ सौंप दिया था । क्षत्रियों का बिल्कुल पतन हो चुका था । वे दूसरे को नष्ट करने के घाट में रह कर अपना भी सर्वनाश कर रहे थे ।

बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा था । ब्राह्मण धर्म फिर से पनपने लगा था । इस युग में राजा का महत्व सर्वोपरि था । उस की इच्छा पर सम्पूर्ण राज्य निर्भर था । साधारण जनता का कोई महत्व नहीं था । इस समय खुमान रासो, बिसलदेव रासो, परमाल रासो जैसे वीर रस-पूर्ण ग्रन्थों की रचना हुई । अत: इसका नाम वीरगाथा काल रख दिया गया । इस युग के प्रमुख कवियों में चन्दवरदाई नरपति नालह, जगनिक आदि विशेष उल्लेखनीय है ।

वीरगाथा काल की विशेषताएँ :

(१) कवि अपने आश्रयदाता राजा की प्रशंसा और उसकी वीरता का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करता था ।

(२) सभी साहित्य डिंगल और अपभ्रंश भाषा में लिखे गये थे, लेकिन अपभ्रंश में लिखित

रचनाएँ महत्वपूर्ण है । लोकप्रियता की दृष्टि से डिंगल रचनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है ।

(३) आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा तथा उनके युद्ध और विवाह आदि का विस्तृत वर्णन, किन्तु

राष्ट्रीय भावना का अभाव था ।

(४) युद्ध का सजीव वर्णन तथा हृदयग्राही चित्रण हुआ है । कर्कश और ओजपूर्ण पदावली शस्त्रों

की झंकार की याद दिलाती है ।

(५) पारस्परिक वैमनस्य का कारण स्त्रियाँ थीं । अत: उनके विवाह एवं रोमांस की कल्पना तथा विलास – प्रदर्शन में श्रृंगार का श्रेष्ठ वर्णन मिलता है । उन्हें वीर रस के आल्म्बन रूप में ग्रहण करना भी इस युग की मुख्य विशेषता थी ।

(६) चरित – नायकों की वीर-गाथाओं का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन करने में ऐतिहसिकता कम और कल्पना का आधिक्य है ।

(७) वस्तुओं की सूची और सेना आदि का आवश्यकता से अधिक वर्णन होने से कथा में वर्णात्मकता का आधिक्य है ।

(८) वीरगाथाएँ दो रूपों में प्राप्त हैं – (१) प्रबन्ध काव्य के साहित्यिक रूप में -जैसे खुमान रासो और पृथ्वीराज रासो तथा

(२) वीर गीतों के रूप में – जैसे बीसलदेव रासो।

(९) विषय के अनुकुल ओजमयी भाषा – विशेषकर डिंगल का प्रयोग ।

(१०) उपलब्ध प्राय: सभी वीर गाथाएँ संदिग्ध हैं ।

वीरगाथा काल की कविता की विशेषताएँ :

(१) आश्रयदाता की स्तुति

(२) सच्ची राष्ट्रीयता का अभाव

(३) वीर रस के साथ श्रॄंगार का वर्णन

(४) युद्धों के सजीव वर्णन

(५) ऐतिहासिकता का अभाव

(६) कल्पना का बहुलता

पूर्व मध्यकाल / भक्तिकाल – 1575 – 1700

भक्तिकाल के आरम्भ के समय भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी । देश में मुसलमानों का राज्य स्थापित हो चुका था । भारतीय राजाओं को कुचल डाला गया । हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह समाप्त कर दिया गया । राजाओं की वीरता की प्रशंसा करने वाली वाणी स्वत: ही मूक हो गई । उन्होंने भारतीयों की स्वतन्त्रता के साथ-साथ उनके धर्म को भ्रष्ट किया ।

अपने पौरुष से हताश जाति तथा निस्सहाय हिन्दू जनता ‘निर्बल के बल राम’ का सहारा ढूंढने लगी और फलस्वरूप भ्क्तिकाल का आविर्भाव हुआ । मुसलमानों के अत्याचारों के सामने सामान्य जनता की धर्म भावना काफी दब चुकी थी । उसका हृदय धर्म से काफी हट चुका था । मुसलमान मूर्ति तोड़ने तथा देव मन्दिर गिराने में संलग्न थे । जनता में धार्मिक विश्वास कम हो गया । उसे न कर्म की प्रति आस्था रह गई थी और न भगवान् की कृपा में विश्वास ही रह गया था । जनता में भगवान् के प्रति अविश्वास होने लगा । उसके सामने ही उनके देव-मन्दिर गिराए जाते थे और मुरारी उनकी रक्षा न करते थे । उनकी आँखों के सामने ही उन की माताओं और बहनों के सतीत्व का अपहरण होता था । किन्तु द्रोपदी की पुकार सुनकर आने वाले मुरारी कहीं दिखाई न देते थे । इससे पण्डित वर्ग चिन्तित

थे । वे लोग वेदान्त, ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदों, गीता आदि पर शास्त्रार्थ भाष्य आदि करने में संलग्न थे । फलस्वरूप परम्परागत भक्तिमार्ग के सिद्धान्त पक्ष का कई रूपों में नूतन विकास हुआ ।

इस काल में दो धाराएँ प्रबल रूप से बहीं – निर्गुण धारा और सगुण धारा । निर्गुण धारा में ईश्वर को निराकार मानकर सन्त कवियों ने ज्ञान की चर्चा की । सगुण धारा में ईश्वर को साकार मानकर उपासना करने वाले भक्त कवि हुए । निर्गुण धारा के दो रूप हो गये । ज्ञानाश्रयी शाखा , जिसके प्रमुख प्रवर्त्तक कबीरदास थे और प्रेममार्गी शाखा, जिसके जायसी आदि सूफी कवि अनुयायी थे । सगुण धारा भी दो शाखाओं में प्रवाहित हुई । रामभक्ति शाखा, जिसके प्रमुख अनुयायी गोस्वामी तुलसीदास थे और कृष्ण-भक्ति शाखा, जिसके अनुयायी गायक महात्मा कबीर थे । इस प्रकार भक्ति-भाव की प्रधानता होने के कारण ‘भक्ति काल’ नाम दिया गया ।

भक्तिकाल की विशेषताएँ

(१) इस काल के प्राय: सभी कवि उच्च कवि के सन्त और महात्मा थे । वे किसी के आश्रय में न रह

कर स्वच्छन्द रूप से कविता किया करते थे । उनका लक्ष्य जनता में भगवान् की महत्ता का

प्रचार करना था ।

(२) इस काल के कवियों ने धार्मिक क्षेत्र में मुख्यत: सुधार किया । इस के अतिरिक्त

सामाजिक, पारिवारिक एवं राजनितिक क्षेत्र में भी इन सन्त कवियों ने बहुत सुधार किया ।

(३) इस काल में भगवान् के नाम, जप और कीर्तन को मुख्य स्थान दिया गया है ।

(४) सभी भक्त कवियों ने अहंकार एवं बाहरी आडम्बरों का विरोध कर ईश्वर से निश्छल भाव

से सम्बन्ध स्थापित करने पर ज़ोर दिया है ।

(५) इस काल में प्राय: सभी प्रकार के काव्य रचे गये – मुक्तक, खण्डकाव्य और महाकाव्य आदि ।

(६) भाषा की दृष्टि से इस युग में तीन भाषाओं की प्रधानता रही –

(i) कबीर आदि सन्त कवियों की पंचमेल सधुक्कड़ी भाषा

(ii) प्रेम मार्गी और राम मार्गी कवियों की अवधी भाषा

(iii) कृष्ण मार्गी कवियों की ब्रजभाषा ।

(७) इस काल में छन्दों की दृष्टि से कबीर ने दोहों का, सूर ने पदों का, जायसी और तुलसी ने

दोहों, चौपाई आदि छन्दों का प्रयोग किया है । तुलसी ने सभी छन्दों का प्रयोग किया है ।

(८) रस की दॄष्टि से शान्त रस की प्रधानता रही है शान्त के अतिरिक्त अन्य रसों का प्रयोग गौण रूप

में हुआ है ।

(९) इस काल में भगवद नाम का महत्त्व तथा गुरु की महिमा तथा प्रेम-भावना का वर्णन किया है ।

(१०) भक्त और भगवान का पारम्परिक सम्बन्ध; यथा पिता-पुत्र, स्वामी-सेवक, पति-पत्नी आदि

रूपों में ।

(११) प्राचीन रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों का खण्डन किया है ।

(१२) इस काल की रचनाओं में शील और सदाचार का बड़ा ध्यान रखा गया है ।

(१३) इस काल की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि भक्ति की चारों धाराओं –

ज्ञानमार्गी, प्रेममार्गी, राममार्गी और कृष्णमार्गी में सूक्ष्म अन्तर होते हुए भी एक नाम

से सम्बोधित किया जा सकता है ।

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